Monday, January 4, 2016

kambal ki garmahat

रुई के नरम - नर्म फाओं सी गिरती ,
कोमल शुभ्र चाँदनी - सी बिछती ,
गिर रही आसमानी बोरे से बर्फ .......
याद आ गया बचपन ,
जब अम्मा रुई धुनने वाले को बुला,
करती पहले घंटो हिसाब- किताब ,
दोनों ही दल देते अपनी - अपनी दलील ,
माहिर खिलाड़ी से जाँचते- परखते ,
एक - दूजे को....आखिर तय होता एक दाम............
हम तो इन सब बातों से बेखबर ,
बस करते रुई धुनने का इंतज़ार ,
उसकी तकली की तक - तक ,
मानो सप्त - स्वर का राग ,
हवा मे उड़ती रुई और
हमे मिल जाता खेलने का सामान,
हो जाती धर - पकड़ की शुरुआत ,
अम्मा की झिड़की से बे परवाह ,
बस एक मौके की तलाश ,
अब .........न है रुई धुनने वाला ,
न ही गली मे गूँजती उसकी आवाज़ ,
न अम्मा की झिड़की ,
न रही कंबल मे पहली सी गर्माहट ................PK