कमरे की रेतीली दीवार से खा रगड़ ,
वह औरत छीलती रही पल - पल ,
नर्म प्यार के अहसास फूट गए फफोले से ,
बह चल पीला - मवाद मर्यादा का ,
रेंगने लगा बदन पर बोझ समाज का ,
कहाँ रहा फिर अपना मन अपना ,
बंट गया , खंडित -खंडित हिस्सों मे ,
इतनी ढेर सी कीरेंचे की बटोर भी न पाई ,
और भी ज़्यादा बिखरती चली गई ,
न समाई धरती मे न ही डूब सकी ,
धूल सी उड़ छा गई तेरे वजूद पे ,
कितना भी पोंछों फिर भी चमकती है,
मेज़ - कुर्सी तुम्हारी तिपाई पे ,
नहीं छोड़ सकी मोह तेरे आँगन का ,
आज भी बिछी है वहीं की वहीं ॥
वह औरत छीलती रही पल - पल ,
नर्म प्यार के अहसास फूट गए फफोले से ,
बह चल पीला - मवाद मर्यादा का ,
रेंगने लगा बदन पर बोझ समाज का ,
कहाँ रहा फिर अपना मन अपना ,
बंट गया , खंडित -खंडित हिस्सों मे ,
इतनी ढेर सी कीरेंचे की बटोर भी न पाई ,
और भी ज़्यादा बिखरती चली गई ,
न समाई धरती मे न ही डूब सकी ,
धूल सी उड़ छा गई तेरे वजूद पे ,
कितना भी पोंछों फिर भी चमकती है,
मेज़ - कुर्सी तुम्हारी तिपाई पे ,
नहीं छोड़ सकी मोह तेरे आँगन का ,
आज भी बिछी है वहीं की वहीं ॥