Saturday, August 11, 2012

सिल्ली -बिल्ली

आज फिर पैर फिसला,
क्या करूँ बड़ी लापरवाह हूँ न ...
खिसयानी सी हंसी हँस दी ....तू ज़रा ख्याल रखा कर ,कभी गाल ,कभी हाथ ,कुछ न कुछ चितकबरा रहता है तेरा ...पता है , यह भी सिल्ली -बिल्ली कहते है ,बहुत प्यार करते है ,कोशिश बहुत करती हूँ ,उनको गुस्सा न आए ,पर पता नहीं क्यूँ ,
कुछ न कुछ कारण पैदा हो ही जाता है ,
देखो यह पट्टी भी उन्होने ही है बांधी,
वह सकुचाती सी बोली ....

Thursday, August 9, 2012

जिंदगी ढूँढती

जिंदा हूँ मगर , जिंदगी ढूँढती हूँ |
हैवानों के शहर में , इंसानों को ढूँढती   हूँ |
सोने - चाँदी के बाज़ार मे फूलों को ढूँढती   हूँ |
बंद घुटती दीवारों में , खुला आकाश ढूँढती   हूँ |
काली - भयावह रात में , रोशनी की रसधार ढूँढती   हूँ |
बनावटी - खोखली हंसी में , मासूम मुस्कराहट को ढूँढती   हूँ |
आधे - अधूरे शब्दों में , संवाद को ढूँढती   हूँ |
रुखी - सुखी इस जिंदगी में , प्यार का दीदार ढूँढती   हूँ |

Wednesday, August 8, 2012

vah

परे ढ्केल अपने दुधमुंहे बच्चे को,
वह, मुंहअंधेरे उठ गई ।
अंगडाई के लिये उठ्ते हाथ ,
पीडा से जहां के तहां रुक गये ।
फ़िर, उसने उचट्ती निगाह डाली
अपने सोये पति पर
और घूम गया , कल रात का वह दॄश्य
जब पी कर उसे पीटा गया था ।
वह पिट्ती रही बेहोश होने तक।
जब होश आया, वह सहला रहा था ,
उसका बदन ।
उसकी निगहों में थी दीनता ,
याचक की भांति गिडगिडा रहा था ।
वह जड बनी साथ देती रही, उसका ,
जड्ता से भी तृप्त हो सो गया वह,
और
सुलगती रही सूखी लकडी की तरह वह ।
बरबस उठ गई निगाहें ,
अपनी झोंपडी की तरफ़
कुल चार हाथ लम्बी , दो हाथ चौडी जगह।
काफ़ी है उसके चार बच्चों ,पति
और स्वयं के लिये ।
वह तो अच्छा है , चार पहले ही चल बसे,
वरना.............?
सोच कर उसकी आह ,निकल जाती है ।
बच्चे के करुण क्रन्दन ने रोक दिया विचारों का तांता,
शायद भूखा है ।
उसके पास अब था ही क्या ,
जो उसकी भूख मिटाता ।
छातियों का दूध भी , आखिरी बूंद तक निचुड चुका था ।
उसे एक घूंट पानी पिला ,
वह हड्बडाती उठी,
कब तक बैठी रहेगी ?
जल्दी चले वरना ,
सारे कागज पहले ही बीन लिये जाएगें ,
और वह कूडे को कुरेदती रह जाएगी ।
फ़टी चादर लपेट ,
पैंबद लगा बोरा उठा ,
नंगे पांव ,
ठिठुरती सर्दी में ,
सड्क पर आ गई वह।
अभी दिन भी नहीं निकला था , पूरी तरह ।
इधर- उधर से कुत्तों ने मुंह उठाया,
फ़िर से दुबक गए,
शायद पह्चानने लगे थे ,उसकी पद्चाप ।
वह चलती गई, चलती गई........गई,
लडखडाती ....
कांपती ....
कुलबुलाती....
ठिठुरती......
अब, वह सब कुछ भूल चुकी थी ,
मंजिल थी ............कूडे का ढेर
एक मात्र ध्येय.......
आंतिम ल्क्ष्य....
सारा संसार वृक्ष बन गया था उसके लिये,
और कूडे का ढेर चिडिया की आंख ,
जहां उसे , अपनी पडॊसन से पहले
पंहुचना था...........

इति

Monday, August 6, 2012


अम्मा का बहाना

माँ बार - बार ऑंखें रगड़ रही थीं ,
"आज लकड़ी बहुत गीली है ,"
खिसयानी हँसी कुछ और ही कह रही थी |
बापू के तीखे तेवर और ऊँची आवाज़ ,
घर  के कोने- कोने को दहला रहे थे ,
बच्चे और अधिक अम्मा से सटे जा रहे थे |
अनपढ़ - अनगढ़ , सीधी - सादी माँ ,
मूक गाय सी आँसू बहा रही थी |

तुम सब सोर कम करो ,
तुमरे बापू कुछ परेसान हैं |
बापू की हर परेशानी का अम्मा क्यों है शिकार ,
गलती चाहे हो किसी की माँ पर ही क्यों होता है वार |
आखिर कब तक वह सहती रहेगी  यह अत्याचार  ?

न बिटिया हमका कोई दुख नहीं ,
यह तो मरद का काम ही है गरजना - बरसना ,
रोब -दाब , अहं यह सब है उनकी पहचान |
हमरे असून का , का है जे तो ज्यूँ ही बहे जाते हैं ,
तुमरे बापू दिन भर कही भी  रहे ,
कम से कम साम को घर तो लौट आते हैं ,
हमरे जीने के लिए तो इत्ता ही बहुत है |
मुनिया टुकुर - टुकर अम्मा को निहार रही थी ,
क्या यही नियति मेरी भी होगी यही सोच रही थी |

तभी मुनुआ  अम्मा से चिपट गया ,
तेरे लिए मैं बिजली का चूल्हा लाऊंगा,
अम्मा तेरा हर दुख अब मैं उठाऊंगा |
अम्मा ने प्यार भरी  चपत लगाई,
यह सब करना जब आए तेरी लुगाई |

मुनुआ अम्मा में और गढ़  गया ,
मुनिया ने बजाई ताली  और बोली ,
मैं अपना चूल्हा खुद लाऊँगी ,
अपनी ऑंखें यूँ ही न व्यर्थ बहाउंगी |

अम्मा ने धैर्य से सर पर हाथ फेरा ,
हाँ , तेरा हर सपना जरुर पूरा करवाउंगी  |
अब बापू के विरोध से भी ,
मुनिया पढने जाती है ,
घर आ अम्मा को किस्से - कहानी सुनती है |

अम्मा अब भी ऑंखें रगडा करती है ,
अपनी नहीं , बापू की ऑंखें पौंछा करती है ,
खटिया पर पड़े बापू गों - गों करते हैं ,
उनकी आँखों से अविरल बहते आंसू मानो ,
अपराध बोध से ग्रस्त क्षमा याचना करते हैं |

मुनिया - मुनुआ कभी - कभी मिलने आते हैं ,
लाख चाहने पर भी अम्मा को  साथ नहीं ले जा पाते,
अम्मा बापू की सेवा में दिन -रात बिताती है ,
उसे ही अपने भाग्य  का लेखा मान कर तृप्त हो जाती हैं |