Saturday, December 10, 2011

pravah

तुम्हारी पेशानी पर झलकते ,
स्वेद - बिन्दुओ को ,'
आँचल मे सह्जेने को जी चाहता है

जी चहता है ,
स्वेद - बिन्दुओ के हेतु
सिमट आए मेरे आँचल मे ,
तो यह आँचल सार्थक हो

तुम्हारे राज में हमराज बन
खो जाने को जी कहता है

जी कहता है ऐसे ही खो जाने से
महामिलन की अनुभूति ,
प्राप्त हो मुझे भी एक ब़ार

पलको पर घिर आए ,
तुम्हारे इस गीलेपन को
पी जाने को जी कहता है

जी कहता है
और यह प्रयास
बन जाए प्रतीक
हमारे अनंत में खो जाने का

तुम और में का विभाजन
समाप्त कर ,
तुम से मे , में कहलाऊ
जी कहता है
इति.....................

Sunday, December 4, 2011

वह पगली

वह पगली यहाँ - वहाँ बुझे अलावो को कुरेद रही थी ,
सीत्कारती जलते हाथ को सहलाती ,
मासूम बालक सा दुलारती ,
मशगूल फिर उष्ण आग को इधर - उधर छितराती,
देखती रही उसे काफी देर ,
पर रोक न पाई अपनेआप को ,
पास जा बोली ,अरी पगली ..
क्या करती है , जलाएगी क्या खुद को ,
सर उठा निर्विकार दृष्टि से देखा मुझे ,
फिर देखा सपाट नज़रों से अपनी हथेली को ....
कुछ देर रुकी और बोली ....
कुरेद रही हूँ अपने , बुझे सपनों की राख ,
शायद कहीं हो कोई चिंगारी अभी बाकी........!!!