Friday, January 21, 2011

मिलने और बिछुड़ने के बीच

मिलने और बिछड़ने के बीच ,
ठहरा पल ,
रेंगता चाँद ,
झरती चांदनी ,
बहती रात ,
मदहोश नयन ,
अधमुंदी पलक ,
साकार स्वप्न ,
मखमली खनक ,
रेशमी तपिश ,
अस्फुट स्वर ,
संदली खुशबू ,
जादुई स्पर्श ,
अलौकिक अदेही   मिलन ................

भोलापन

बुधिया दौड़ती - दौड़ती भीतर आयी,
अम्मा का पल्लू खींच बोली ,
"जल्दी बाहर आओ ,
देखो उपरवाला ,हमसे भी ज्यादा गरीब है |"
अम्मा खिजाई, "छोरी काम का बखत है ,
तू अलाय  - बलाय बोल कर टेम ख़राब मत कर |"
बुधिया रूआंसी हो कर बोली ,
तू तो कहती थी ,
उपरवाला सबकी सुनता है ,
वही सबका मालिक है ,
वही सबको देता है ,
हमारी भी वही सुनेगा ,
पर उसका अपना कम्बल ,
कितने छेदों से भरा है |
अम्मा अवाक् उसका मूंह ताकने लगी ,
अरी पगली !  वह तो टिम टिमाते तारे हैं ,
उसकी मखमली चादर में जड़े सितारे हैं |
बुधिया तमतमाई ,तो हमारे सितारे को तुम ,
छप्पर में हुआ छेद क्यों कहती हो ?
उसने झोपडी के   कोने से छन कर आती,
चांदनी की तरफ अपनी ऊँगली घुमाई ,
दुधिया किरणों का प्रकाश ,
बुधिया के चेहरे को दमका रहा था ,
अम्मा रोटी सेंकना भूल ,
कभी बुधिया तो कभी छत को देखती ,
जो वाकई हीरे की तरह चमक रहा था |

Wednesday, January 19, 2011

अनजाना पर अपना देश

अनजाना पर अपना देश
इस अनजान देश ,
नगर , गली  में महफूज़ हूँ मैं |
इन अजनबी , अनदेखे ,
चेहेरो   के बीच सुरक्षित हूँ मैं |
ये सपाट - निस्तेज चेहेरे,
प्रशन नहीं पूछते ,
फिकरे नहीं कसते ,
स्वीकारते हैं मुझे ,
मेरे ही रूप में |
अपनों के बीच ,
तालमेल का झमेला है ,
रिश्तों की भीड़ ,
फिर भी मन अकेला है |
समझोते की दुनिया ,
हर वक़्त की खींचतानी,
देती है बस परेशानी |
इसलिए मैं
इस अनजान देश ,
नगर , गली  में खुश हूँ..........

Tuesday, January 18, 2011

thanda pradesh

सर्द सफ़ेद सन्नाटा ,
ठंडी बर्फ से लोग ,
न उमंग , न अहसास ,
शून्य में तकती निगाहें ,
कनटोपों में छिपे कान ,
क्षण भर को नजर का मिलना ,
कोरों पर मुस्कराहट का खिलाना ,
फिर वापस अपने केंद्र की ओर,
सब अपनी धुरी से बंधे ,
दूसरों के सुख - दुःख से परे ,
सर्द सफ़ेद सन्नाटा मानो जम गया है शिराओं में |
 
इतना बड़ा  बर्फीला  शहर ,
हजारों लोग , लाखों गाड़ियाँ ,
पर न कोई आवाज़ , न कोई शोर ,
न मंदिर की घंटी , न मस्जिद की अजान ,
न गुरबानी के बोल , न चर्च की प्रार्थना ,
यह नहीं  कि होता नहीं यह सब यहाँ ,
पर होता है कब यही हमको नहीं पता ,
बिना आवाज़ ही सब काम निबट जाते हैं ,
दूर दूर तक फैले लोग पल में सिमिट जाते हैं ,
सर्द सफ़ेद सन्नाटा जैसे हड्डियों में बस गया है ,
इसलिए इंसान यहाँ भावशून्य हो गया है |

Monday, January 17, 2011

surymukhi si mae

मैं सूर्य मुखी सी ,
अपेक्षा  से  वशीभूत ,
घूम जाती हूँ ,
तुम्हारी  ओर हर बार..........|
कभी सौम्य ,
कभी मद्धम ,
कभी प्रखर ,
तुम्हारी रोशनी...|
आकस्मिक तुम्हारी तब्दीली,
असमंजित करती है |
असंतुलित , अस्पष्ट ,उन्मादी ,
तुम्हारा आचरण ...|
सवांरता , मांजता ,परिपक्व
करता है मुझे भीतर से ..........
मैं ओर निखर जाती हूँ ,
पहले से अधिक ,
सजीव ,शोख ,दीप्तिमान ..........|