Saturday, November 27, 2010

vaqt -3

जब आँखों में ऑंखें झाँकेंगी,
तब वक़्त वहीँ थम जाएगा ,
देख के साँसों का मिलन ,
यह चाँद भी जल जाएगा ,
इश्क वक़्त का मोहताज़ नहीं ,
इस लम्हें में मैनें जाना ,
जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
वक़्त मुट्ठी में दबा लाना |

tab samjh ayaa

आज धुंधला - धुंधला दिखा ,
अपना ही प्रतिबिम्ब दर्पण में,
बार - बार पौंछती रही  उसे ,
फिर भी चमका न सकी आईना |
अचानक हथेली से संभाली लट,
तो छू गया गीलापन ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है अपनी परछायीं |
सहसा असपष्ट होने लगे अक्षर ,
पढ़ न सकी तुम्हारी लिखावट ,
कभी दूर - कभी पास करती रही पन्ने ,
फिर भी साफ़ न हो सकी निगाह ,
अकस्मात टपक गयी एक बूंद ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है तुम्हारी इबारत ................

Wednesday, November 24, 2010

Jeevan ki dhuri

पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही |
भोर की पहली किरण छूती है मुझे ,
गुलाल हो जाती हूँ , तुम्हारे अहसास से |
बहती हवा का झोंका लहरा जाता है केश ,
उंगलियाँ तुम्हारी फिर जाती हैं जैसे |
चमकती किरणों की जलती चुभन ,
लबों पर मानो तुम्हारी जुम्बिश |
शाम की ढलती लाली का सुर्ख अबीर ,
तुम्हारी चाहत का रंग जैसे मेरे संग |
सुरमई आकाश पर चन्द्र की शीतलता ,
खो कर पाने की यही है सम्पूर्णता |
पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही ....................

Monday, November 22, 2010

bas tum hi tum

हवा में महक सी तुम ,
धूप में किरण सी तुम ,
भोर में ओस सी तुम ,
बादल  में बिजली सी तुम ,
नदी में गति सी तुम ,
आँखों में चमक सी तुम ,
दिल में धड़कन सी तुम ,
होठों में ध्वनि  सी तुम ,
सपनों में जीवित सी तुम ,
भीड़ में तनहाई सी तुम ,
अब और कोई नहीं आता नज़र ..
जहाँ देखूँ सिर्फ तुम ही तुम ...........

pinjrey ki bulbul

राजा को भा गयी सुनहरी बुलबुल ,
बुलबुल भी राजा को पा सब गयी भूल |
राजा की ही हाँ में हाँ  मिलाती थी ,
राजा के लिए ही हँसती और गाती थी |
अपने कतरे पंख देख कर इतराती थी ,
अपने नए रूप पर स्वयं इठलाती थी |
अपनी उड़ान भूल , फुदकने लगी ,
बंद कमरे के दायरे में टहलने लगी |
इसी को अपनी नियति मान रम गई ,
यही दुनिया उसके तन - मन में बस गयी |
बंद खिड़की , दरवाज़े के पास जब भी गुजरती ,
भीतर कितना सुख है वह यह सोचती |
एक दिन खिड़की खुली रह गयी ,
वह चौखट पर जा कर जम गयी |
ताक रही थी खुला आकाश और हरी घास ,
दिल में जागी नयी उमंग और आस |
राजा के तेवर देख वापस लौट चली ,
अपने अरमान मन में ही कुचल गयी |
शायद अब मैं कभी उड़ न पाऊँगी,
सारी बस उम्र यूँ ही गवायुंगी|

Sunday, November 21, 2010

samsya kaa samadhaan

सामने चल रहा था के० बी० सी०,
और जवाब दे रहे थे हम |
हर प्रश्न का उत्तर ,
जुबान पर था जड़ा,
जैसे हमारे लिए ही था गड़ा |
कहीं न हो रही थी हमसे भूल ,
न हो रही थी हमसे कोई चुक |
सभी सीढ़ियाँ फटाफट चढ़ते चले गए ,
किस्मत के ताले सरपट खुलते चले गए |
पर , हाय सारा कार्यक्रम चल रहा था टी० वी० पर ,
और हम बैठे थे अपने घर की हॉट सीट पर |
ऐसा क्यों होता है , जब समस्या हो किसी और की ,
सारे समाधान होते हैं हमारे पास ,
वही कठिनाई जब होती है अपनी ,
तो अक्ल हो जाती है गुम और शरीर हो जाता है सुन्न |
दूसरे के फटे में टांग अड़ाना आदत है ,
अपनी बात स्वयं सुलझाना मुसीबत है |
दूसरों को सलाह देते हम थकते नहीं ,
अपने आंगन में हम झंकते नहीं |
कितना अच्छा हो , अगर हम दूसरों से पहले अपनी सुने ,
किसी को कहने से पहले अपना मन गुने |