जब भी करती हूँ तुमसे बातें ,
अपने - आप को पा जाती हूँ ,
न दिखावा ,
न छलावा,
न बनावट ,
न सजावट ,
बस मन की परतों को खोलती जाती हूँ |
तुम भी तो ,
मंद - मंद मुस्कुराते ,
कोरों से मुझे पीते,
मेरी मस्ती ,
मेरी चंचलता ,
मेरा अल्हड़पन ,
मेरा अपनापन ,
हल्के से
थाम लेते हो हाथ मेरा |
काँप जाती हूँ ,
नाज़ुक लता सी ,
और लिपट जाती हूँ शाख से |
Wednesday, December 22, 2010
Monday, December 20, 2010
nadi si
तुमसे जब भी बात करती हूँ ,
उतर आती है नदी मेरी आँखों में ,
तुम्हारे स्वरों की लहरों में ,
डूबती - उतरती - बहती हूँ ,
कभी तेज , कभी मंथर ,
...गोल - गोल भंवर सी ,
इतराती - बलखाती - अल्हड़,
समा जाती हूँ तुम्हारी आँखों के समुद्र में ,
तुम भी साथ - साथ बहते - बहते ,
मुझे भर कर बाहों में हर बार ,
विलीन हो जाते हो प्रियतम बार - बार |
उतर आती है नदी मेरी आँखों में ,
तुम्हारे स्वरों की लहरों में ,
डूबती - उतरती - बहती हूँ ,
कभी तेज , कभी मंथर ,
...गोल - गोल भंवर सी ,
इतराती - बलखाती - अल्हड़,
समा जाती हूँ तुम्हारी आँखों के समुद्र में ,
तुम भी साथ - साथ बहते - बहते ,
मुझे भर कर बाहों में हर बार ,
विलीन हो जाते हो प्रियतम बार - बार |
Thursday, December 16, 2010
Kitaab - si
वह
पुरातान ग्रन्थ सी ,
सिर्फ बैठेक की शेल्फ पर सजती हैं |
वह
सस्ते नॉवेल सी ,
सिर्फ फुटपाथ पर बिकती हैं |
वह
मनोरंजक पुस्तक सी
उधार लेकर पढ़ी जाती हैं |
वह
ज्ञानवर्धक किताब सी ,
सिर्फ जरुरत होने पर पलटी जाती हैं |
गन्दी , थूक, लगी उँगलियों से ,
मोड़ी, पलटी , और उमेठी जाती हैं |
पढ़ो हमें सफाई से ,
एक - एक पन्ना एहतियात से पलटते हुए ,
हम सिर्फ समय काटने का सामान नहीं ,
हम भी इन्सान है , उपहार में मिली किताब नहीं .................
पुरातान ग्रन्थ सी ,
सिर्फ बैठेक की शेल्फ पर सजती हैं |
वह
सस्ते नॉवेल सी ,
सिर्फ फुटपाथ पर बिकती हैं |
वह
मनोरंजक पुस्तक सी
उधार लेकर पढ़ी जाती हैं |
वह
ज्ञानवर्धक किताब सी ,
सिर्फ जरुरत होने पर पलटी जाती हैं |
गन्दी , थूक, लगी उँगलियों से ,
मोड़ी, पलटी , और उमेठी जाती हैं |
पढ़ो हमें सफाई से ,
एक - एक पन्ना एहतियात से पलटते हुए ,
हम सिर्फ समय काटने का सामान नहीं ,
हम भी इन्सान है , उपहार में मिली किताब नहीं .................
Sunday, December 12, 2010
Munni badnaam hui
कल रात एक वारदात हुई , कॉल - सेंटर से लौटते हुए ,
मुन्नी बदनाम हुई .............|
गली - नुक्कड़ - और मिडिया में , इसकी चर्चा सारे आम हुई |
किसी ने कहा भई , क्या ज़माना आ गया है ,
इन लड़कियों को फैशन कम करना चाहिए ,
अपने - आप मुसीबत को न्योता देती हैं ,
फिर उस बात को ले कर कोर्ट - कचहरी में रोती हैं |
मतलब अगर पर्दा रह गया तो , अपराध कम हो जायेंगे ,
फिर यह भेड़िये नज़र नहीं उठा पायेंगे ?
तो फिर क्यों न ऐसा किया जाये ,
उन दरिंदों की आँखों पर पट्टियाँ , बांध दी जाये |
ताकि हर मुन्नी चैन की साँस ले सके ,
विक्षिप्त इस समाज में इज्ज़त से जी सके |
मुन्नी बदनाम हुई .............|
गली - नुक्कड़ - और मिडिया में , इसकी चर्चा सारे आम हुई |
किसी ने कहा भई , क्या ज़माना आ गया है ,
इन लड़कियों को फैशन कम करना चाहिए ,
अपने - आप मुसीबत को न्योता देती हैं ,
फिर उस बात को ले कर कोर्ट - कचहरी में रोती हैं |
मतलब अगर पर्दा रह गया तो , अपराध कम हो जायेंगे ,
फिर यह भेड़िये नज़र नहीं उठा पायेंगे ?
तो फिर क्यों न ऐसा किया जाये ,
उन दरिंदों की आँखों पर पट्टियाँ , बांध दी जाये |
ताकि हर मुन्नी चैन की साँस ले सके ,
विक्षिप्त इस समाज में इज्ज़त से जी सके |
Friday, December 10, 2010
Zindgi
जिंदा हूँ मगर , जिंदगी ढूनढती हूँ |
हैवानों के शहर में , इंसानों को ढूनढती हूँ |
सोने - चाँदी के बाज़ार मे फूलों को ढूनढती हूँ |
बंद घुटती दीवारों में , खुला आकाश ढूनढती हूँ |
काली - भयावह रात में , रोशनी की रसधार ढूनढती हूँ |
बनावटी - खोखली हंसी में , मासूम मुस्कराहट को ढूनढती हूँ |
आधे - अधूरे शब्दों में , संवाद को ढूनढती हूँ |
रुखी - सुखी इस जिंदगी में , प्यार का दीदार ढूनढती हूँ |
हैवानों के शहर में , इंसानों को ढूनढती हूँ |
सोने - चाँदी के बाज़ार मे फूलों को ढूनढती हूँ |
बंद घुटती दीवारों में , खुला आकाश ढूनढती हूँ |
काली - भयावह रात में , रोशनी की रसधार ढूनढती हूँ |
बनावटी - खोखली हंसी में , मासूम मुस्कराहट को ढूनढती हूँ |
आधे - अधूरे शब्दों में , संवाद को ढूनढती हूँ |
रुखी - सुखी इस जिंदगी में , प्यार का दीदार ढूनढती हूँ |
Monday, December 6, 2010
Shabd
शब्दों का माया जाल ..
रंगहीन ,
गंधहीन ,
सम्वेदेन्हीन ,
शब्द कोरे शब्द .....
खोखले ,
बनावटी ,
मटमैले ,
पन्नों पर बिखरे - बिखरे ...
हवा में तिरते - तिरते ,
सर्पीली गुंजलिका से ,
शब्द ही शब्द ........
मेरे होठों से ,
तुम्हारे कानों तक ,
रूप बदलते ....
कलम की स्याही से ,
दिल की गहराई तक ,
अर्थ बदलते .....
शब्द ........शब्द ........ आधे ...अधूरे |
रंगहीन ,
गंधहीन ,
सम्वेदेन्हीन ,
शब्द कोरे शब्द .....
खोखले ,
बनावटी ,
मटमैले ,
पन्नों पर बिखरे - बिखरे ...
हवा में तिरते - तिरते ,
सर्पीली गुंजलिका से ,
शब्द ही शब्द ........
मेरे होठों से ,
तुम्हारे कानों तक ,
रूप बदलते ....
कलम की स्याही से ,
दिल की गहराई तक ,
अर्थ बदलते .....
शब्द ........शब्द ........ आधे ...अधूरे |
Sunday, December 5, 2010
meri pachaan
मैं तो हूँ मस्त बयार , बांधने की तुम्हारी कोशिश है बेकार |
यह भटकन - अटकन -उलझन, ही तो है मेरी पहचान |
निर्द्वंद , अबाध , बहती ,...
निर्मल , शीतल , सुगन्धित ...
प्यार और त्रास भी ...
प्यास और पानी भी ..
जीत भी और हार भी ...
सवाल भी और जवाब भी ...
मैं तो हूँ मस्त बयार , बांधने की तुम्हारी कोशिश है बेकार ........|
यह भटकन - अटकन -उलझन, ही तो है मेरी पहचान |
निर्द्वंद , अबाध , बहती ,...
निर्मल , शीतल , सुगन्धित ...
प्यार और त्रास भी ...
प्यास और पानी भी ..
जीत भी और हार भी ...
सवाल भी और जवाब भी ...
मैं तो हूँ मस्त बयार , बांधने की तुम्हारी कोशिश है बेकार ........|
Sunday, November 28, 2010
bhybheet
सतह पर काई सी तैरती ,
डूबने से आतंकित ,
बहने दो बहने दो .........
मन में मंद मुस्काती ,
हंसने से भयभीत ,
जीने दो जीने दो ........
हवा में फाये से फरफराती ,
गिरने से त्रासित,
उड़ने दो उड़ने दो .............
गगन में बूंद सी थरथराती ,
गिरने को बेकाबू ,
बरसने दो बरसने दो ..............
डूबने से आतंकित ,
बहने दो बहने दो .........
मन में मंद मुस्काती ,
हंसने से भयभीत ,
जीने दो जीने दो ........
हवा में फाये से फरफराती ,
गिरने से त्रासित,
उड़ने दो उड़ने दो .............
गगन में बूंद सी थरथराती ,
गिरने को बेकाबू ,
बरसने दो बरसने दो ..............
Saturday, November 27, 2010
vaqt -3
जब आँखों में ऑंखें झाँकेंगी,
तब वक़्त वहीँ थम जाएगा ,
देख के साँसों का मिलन ,
यह चाँद भी जल जाएगा ,
इश्क वक़्त का मोहताज़ नहीं ,
इस लम्हें में मैनें जाना ,
जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
वक़्त मुट्ठी में दबा लाना |
तब वक़्त वहीँ थम जाएगा ,
देख के साँसों का मिलन ,
यह चाँद भी जल जाएगा ,
इश्क वक़्त का मोहताज़ नहीं ,
इस लम्हें में मैनें जाना ,
जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
वक़्त मुट्ठी में दबा लाना |
tab samjh ayaa
आज धुंधला - धुंधला दिखा ,
अपना ही प्रतिबिम्ब दर्पण में,
बार - बार पौंछती रही उसे ,
फिर भी चमका न सकी आईना |
अचानक हथेली से संभाली लट,
तो छू गया गीलापन ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है अपनी परछायीं |
सहसा असपष्ट होने लगे अक्षर ,
पढ़ न सकी तुम्हारी लिखावट ,
कभी दूर - कभी पास करती रही पन्ने ,
फिर भी साफ़ न हो सकी निगाह ,
अकस्मात टपक गयी एक बूंद ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है तुम्हारी इबारत ................
अपना ही प्रतिबिम्ब दर्पण में,
बार - बार पौंछती रही उसे ,
फिर भी चमका न सकी आईना |
अचानक हथेली से संभाली लट,
तो छू गया गीलापन ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है अपनी परछायीं |
सहसा असपष्ट होने लगे अक्षर ,
पढ़ न सकी तुम्हारी लिखावट ,
कभी दूर - कभी पास करती रही पन्ने ,
फिर भी साफ़ न हो सकी निगाह ,
अकस्मात टपक गयी एक बूंद ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है तुम्हारी इबारत ................
Wednesday, November 24, 2010
Jeevan ki dhuri
पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही |
भोर की पहली किरण छूती है मुझे ,
गुलाल हो जाती हूँ , तुम्हारे अहसास से |
बहती हवा का झोंका लहरा जाता है केश ,
उंगलियाँ तुम्हारी फिर जाती हैं जैसे |
चमकती किरणों की जलती चुभन ,
लबों पर मानो तुम्हारी जुम्बिश |
शाम की ढलती लाली का सुर्ख अबीर ,
तुम्हारी चाहत का रंग जैसे मेरे संग |
सुरमई आकाश पर चन्द्र की शीतलता ,
खो कर पाने की यही है सम्पूर्णता |
पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही ....................
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही |
भोर की पहली किरण छूती है मुझे ,
गुलाल हो जाती हूँ , तुम्हारे अहसास से |
बहती हवा का झोंका लहरा जाता है केश ,
उंगलियाँ तुम्हारी फिर जाती हैं जैसे |
चमकती किरणों की जलती चुभन ,
लबों पर मानो तुम्हारी जुम्बिश |
शाम की ढलती लाली का सुर्ख अबीर ,
तुम्हारी चाहत का रंग जैसे मेरे संग |
सुरमई आकाश पर चन्द्र की शीतलता ,
खो कर पाने की यही है सम्पूर्णता |
पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही ....................
Monday, November 22, 2010
bas tum hi tum
हवा में महक सी तुम ,
धूप में किरण सी तुम ,
भोर में ओस सी तुम ,
बादल में बिजली सी तुम ,
नदी में गति सी तुम ,
आँखों में चमक सी तुम ,
दिल में धड़कन सी तुम ,
होठों में ध्वनि सी तुम ,
सपनों में जीवित सी तुम ,
भीड़ में तनहाई सी तुम ,
अब और कोई नहीं आता नज़र ..
जहाँ देखूँ सिर्फ तुम ही तुम ...........
pinjrey ki bulbul
राजा को भा गयी सुनहरी बुलबुल ,
बुलबुल भी राजा को पा सब गयी भूल |
राजा की ही हाँ में हाँ मिलाती थी ,
राजा के लिए ही हँसती और गाती थी |
अपने कतरे पंख देख कर इतराती थी ,
अपने नए रूप पर स्वयं इठलाती थी |
अपनी उड़ान भूल , फुदकने लगी ,
बंद कमरे के दायरे में टहलने लगी |
इसी को अपनी नियति मान रम गई ,
यही दुनिया उसके तन - मन में बस गयी |
बंद खिड़की , दरवाज़े के पास जब भी गुजरती ,
भीतर कितना सुख है वह यह सोचती |
एक दिन खिड़की खुली रह गयी ,
वह चौखट पर जा कर जम गयी |
ताक रही थी खुला आकाश और हरी घास ,
दिल में जागी नयी उमंग और आस |
राजा के तेवर देख वापस लौट चली ,
अपने अरमान मन में ही कुचल गयी |
शायद अब मैं कभी उड़ न पाऊँगी,
सारी बस उम्र यूँ ही गवायुंगी|
बुलबुल भी राजा को पा सब गयी भूल |
राजा की ही हाँ में हाँ मिलाती थी ,
राजा के लिए ही हँसती और गाती थी |
अपने कतरे पंख देख कर इतराती थी ,
अपने नए रूप पर स्वयं इठलाती थी |
अपनी उड़ान भूल , फुदकने लगी ,
बंद कमरे के दायरे में टहलने लगी |
इसी को अपनी नियति मान रम गई ,
यही दुनिया उसके तन - मन में बस गयी |
बंद खिड़की , दरवाज़े के पास जब भी गुजरती ,
भीतर कितना सुख है वह यह सोचती |
एक दिन खिड़की खुली रह गयी ,
वह चौखट पर जा कर जम गयी |
ताक रही थी खुला आकाश और हरी घास ,
दिल में जागी नयी उमंग और आस |
राजा के तेवर देख वापस लौट चली ,
अपने अरमान मन में ही कुचल गयी |
शायद अब मैं कभी उड़ न पाऊँगी,
सारी बस उम्र यूँ ही गवायुंगी|
Sunday, November 21, 2010
samsya kaa samadhaan
सामने चल रहा था के० बी० सी०,
और जवाब दे रहे थे हम |
हर प्रश्न का उत्तर ,
जुबान पर था जड़ा,
जैसे हमारे लिए ही था गड़ा |
कहीं न हो रही थी हमसे भूल ,
न हो रही थी हमसे कोई चुक |
सभी सीढ़ियाँ फटाफट चढ़ते चले गए ,
किस्मत के ताले सरपट खुलते चले गए |
पर , हाय सारा कार्यक्रम चल रहा था टी० वी० पर ,
और हम बैठे थे अपने घर की हॉट सीट पर |
ऐसा क्यों होता है , जब समस्या हो किसी और की ,
सारे समाधान होते हैं हमारे पास ,
वही कठिनाई जब होती है अपनी ,
तो अक्ल हो जाती है गुम और शरीर हो जाता है सुन्न |
दूसरे के फटे में टांग अड़ाना आदत है ,
अपनी बात स्वयं सुलझाना मुसीबत है |
दूसरों को सलाह देते हम थकते नहीं ,
अपने आंगन में हम झंकते नहीं |
कितना अच्छा हो , अगर हम दूसरों से पहले अपनी सुने ,
किसी को कहने से पहले अपना मन गुने |
और जवाब दे रहे थे हम |
हर प्रश्न का उत्तर ,
जुबान पर था जड़ा,
जैसे हमारे लिए ही था गड़ा |
कहीं न हो रही थी हमसे भूल ,
न हो रही थी हमसे कोई चुक |
सभी सीढ़ियाँ फटाफट चढ़ते चले गए ,
किस्मत के ताले सरपट खुलते चले गए |
पर , हाय सारा कार्यक्रम चल रहा था टी० वी० पर ,
और हम बैठे थे अपने घर की हॉट सीट पर |
ऐसा क्यों होता है , जब समस्या हो किसी और की ,
सारे समाधान होते हैं हमारे पास ,
वही कठिनाई जब होती है अपनी ,
तो अक्ल हो जाती है गुम और शरीर हो जाता है सुन्न |
दूसरे के फटे में टांग अड़ाना आदत है ,
अपनी बात स्वयं सुलझाना मुसीबत है |
दूसरों को सलाह देते हम थकते नहीं ,
अपने आंगन में हम झंकते नहीं |
कितना अच्छा हो , अगर हम दूसरों से पहले अपनी सुने ,
किसी को कहने से पहले अपना मन गुने |
Tuesday, November 16, 2010
Jab
जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
हल्की धूप , थोड़ी हवा ,
आँखों मे सजा लाना ,
डालकर नैनों में नैन तुम्हारे ,
विचरुंगी जहाँ सारा |
...जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
चंद बादल, एक कतरा आस्मां ,
दिल में अपने दबा लाना ,
बाँहों में सिमिट कर तुम्हारी ,
जी जाऊँगी जीवन सारा |
हल्की धूप , थोड़ी हवा ,
आँखों मे सजा लाना ,
डालकर नैनों में नैन तुम्हारे ,
विचरुंगी जहाँ सारा |
...जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
चंद बादल, एक कतरा आस्मां ,
दिल में अपने दबा लाना ,
बाँहों में सिमिट कर तुम्हारी ,
जी जाऊँगी जीवन सारा |
Saturday, November 13, 2010
kuch nahi
यह जो तरफ महकी - महकी सी हवा भरमाई है ,
कुछ और नहीं पिया , मेरी यादों की गहराई है |
यह जो चारों तरफ उजली - उजली सी धूप खिलखिलाई है ,
कुछ और नहीं पिया , तेरी याद में आँख शरमाई है |
यह जो चारों तरफ हल्की - हल्की सी धुंध छाई है ,
कुछ और नहीं पिया, अपने महामिलन की परछायी है |
कुछ और नहीं पिया , मेरी यादों की गहराई है |
यह जो चारों तरफ उजली - उजली सी धूप खिलखिलाई है ,
कुछ और नहीं पिया , तेरी याद में आँख शरमाई है |
यह जो चारों तरफ हल्की - हल्की सी धुंध छाई है ,
कुछ और नहीं पिया, अपने महामिलन की परछायी है |
Tuesday, November 9, 2010
tumhara sapnaa
आज , अपनी आँखों में देखा ,
तुम्हारे सपने को देखा |
पाया अपने आप को वहाँ ,
हर जगह सर्वत्र ,
अपलक ताक रहे थे तुम ,
नन्हे बालक की भांति |
और मैं मौन , मुस्कराती ,
भांप रही थी तुम्हारी ,
उत्सुकता तथा आकुलता |
उन कुछ पलों मे ,
गुजर गए अनगिनत युग |
खुली पलक , टूटा सपना ,
तुम थे वहीं , तुम हो जहाँ |
न हो यहाँ , न हो वहाँ |
तन से वहाँ, मन से यहाँ |
Sunday, November 7, 2010
ansuni baat
न तुमने कुछ कहा ,
न मैंने कुछ सुना ,
फिर भी बात हमारी हो गयी |
मेरे आंगन खिला चाँद ,
तेरे आंगन उगा सूरज ,
क्षितिज के पार मुलाकात हमारी हो गयी |
तुमने करी बंद पलकें ,
मैने खोली अलकें ,
स्वप्नों के दरिया मे कश्ती हमारी खो गयी |
तुमने देखा एक ख्वाब ,
मैने जिया वह अहसास ,
दोनों के दिल की धड़कन एक हो गयी................
Thursday, November 4, 2010
achank
कुछ देर साथ चले ,
गए फिर बिछुड़ ,
मन की तख्ती से पोंछ दिया नाम |
न था कोई संवाद ,
न ही कोई अहसास |
फिर अचानक ,
एक दिन ,
हज़ारों की भीड़ में ,
दिख पड़े .....
लहक गयी अग्निरेखा ,
कम्पन हुआ घने बादलों मे ,
और
रोशन हुआ
दिल का कोना - कोना ..........
Wednesday, November 3, 2010
Diwali
इस बरस हो ऐसी दिवाली ,
न हो कोई भी झोली खाली ,
खिल जाये उम्मीदों की डाली - डाली |
पूरी हो सबके मन की आशा ,
दुःख-दर्द मिटे ,दूर हो निराशा |
भेद -भाव की मिट जाये खाई ,
मिल जाये आपस मे भाई - भाई |
खुली आँखों में जले सपने सी बाती,
हर किसीको मिले मनचाहा साथी |
अपनेपन का दिया जले हर आंगन,
इस बरस दिवाली हो सबकी मनभावन ||
न हो कोई भी झोली खाली ,
खिल जाये उम्मीदों की डाली - डाली |
पूरी हो सबके मन की आशा ,
दुःख-दर्द मिटे ,दूर हो निराशा |
भेद -भाव की मिट जाये खाई ,
मिल जाये आपस मे भाई - भाई |
खुली आँखों में जले सपने सी बाती,
हर किसीको मिले मनचाहा साथी |
अपनेपन का दिया जले हर आंगन,
इस बरस दिवाली हो सबकी मनभावन ||
Monday, October 25, 2010
tumhari yaad
जब भी सोचती हूँ तुम्हें ,
उभर आता है नीला आकाश ,
ऊँची - ऊँची चोटियाँ,
कल - कल बहती नदी ,
लम्बे - घने पेड़ ,
काली- स्यहा चट्टानें ,
और
एक पुराना मंदिर |
जहाँ बरसों से ,
कोई दिया न जला ,
परिंदा न गया ,
न घंटी, न धूप |
आओ हम - तुम मिल कर ,
धर दे देहरी पर ,
दीपक एक जलता हुआ ,
प्रतीक तेरे - मेरे एक होने का |
उभर आता है नीला आकाश ,
ऊँची - ऊँची चोटियाँ,
कल - कल बहती नदी ,
लम्बे - घने पेड़ ,
काली- स्यहा चट्टानें ,
और
एक पुराना मंदिर |
जहाँ बरसों से ,
कोई दिया न जला ,
परिंदा न गया ,
न घंटी, न धूप |
आओ हम - तुम मिल कर ,
धर दे देहरी पर ,
दीपक एक जलता हुआ ,
प्रतीक तेरे - मेरे एक होने का |
Sunday, October 17, 2010
vaqt
जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
वक़्त मुट्ठी में दबा लाना |
कंधे पर तुम्हारे सिर रखकर ,
देखूँगी की चाँद का धीरे- धीरे आना |
मैं कस कर थाम लूँगी तुम्हारी मुट्ठी ,
लेकर हाथों में हाथ तुम्हारा |
दोनों मिलकर रोक लेंगे ,
पोरों से फिसलता वक़्त हमारा |
सीने पर तुम्हारे सिर रखकर ,
देखूँगी चाँद का धीरे - धीरे जाना |
जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
वक़्त मुट्ठी में दबा लाना |
वक़्त मुट्ठी में दबा लाना |
कंधे पर तुम्हारे सिर रखकर ,
देखूँगी की चाँद का धीरे- धीरे आना |
मैं कस कर थाम लूँगी तुम्हारी मुट्ठी ,
लेकर हाथों में हाथ तुम्हारा |
दोनों मिलकर रोक लेंगे ,
पोरों से फिसलता वक़्त हमारा |
सीने पर तुम्हारे सिर रखकर ,
देखूँगी चाँद का धीरे - धीरे जाना |
जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
वक़्त मुट्ठी में दबा लाना |
Wednesday, September 22, 2010
maa ne kaha thaa
माँ ने कहा था
माँ ने हमेशा कहा ...
नज़रे नीची ,
सर झुका ,
विनम्र हमेशा ,
जुबान पर ताला,
सवाल का जवाब नहीं ,
सामंजस्य बनाये रखना |
अपनी नहीं , दूसरों की सुनना ,
हर बात ध्यान से सुन ,
उस पर अमल करना |
माँ तेरी कोई नसीहत काम नहीं आई .....
जो जितना झुकता है ,
उतना ही झुकया जाता है |
खमोशी को अकड़ समझा जाता है |
हर रोज़ नया फिकरा कसा जाता है |
दूसरों की सुनते - सुनते ,
तेरी लाली अपने को भूल गयी |
तालमेल के इस बंधन में ,
त्रिशंकू सी झूल गयी |
काश ! तूने कहा होता ....
अपनी अस्मिता और पहचान न खोना ,
कमज़ोर नहीं है तू , एक इन्सान है,
तेरी भी अपनी ज़रूरत और माँग है |
तेरी नसीहत की पट्टी अब भी गुनगुनाती हूँ ,
शब्दों को अदल - बदल कर ,
अपनी बिटिया को सुनाती हूँ ,
ऐसे कर्म करना , तुम्हारा हो नाम ,
तू मात्र कठपुतली नहीं , न ही है घर का सामान,
रिश्ते बनाना , निभाना पर ढोना नहीं ,
एक ही जीवन है मजबूरी में बिताना नहीं .............
इति
माँ ने हमेशा कहा ...
नज़रे नीची ,
सर झुका ,
विनम्र हमेशा ,
जुबान पर ताला,
सवाल का जवाब नहीं ,
सामंजस्य बनाये रखना |
अपनी नहीं , दूसरों की सुनना ,
हर बात ध्यान से सुन ,
उस पर अमल करना |
माँ तेरी कोई नसीहत काम नहीं आई .....
जो जितना झुकता है ,
उतना ही झुकया जाता है |
खमोशी को अकड़ समझा जाता है |
हर रोज़ नया फिकरा कसा जाता है |
दूसरों की सुनते - सुनते ,
तेरी लाली अपने को भूल गयी |
तालमेल के इस बंधन में ,
त्रिशंकू सी झूल गयी |
काश ! तूने कहा होता ....
अपनी अस्मिता और पहचान न खोना ,
कमज़ोर नहीं है तू , एक इन्सान है,
तेरी भी अपनी ज़रूरत और माँग है |
तेरी नसीहत की पट्टी अब भी गुनगुनाती हूँ ,
शब्दों को अदल - बदल कर ,
अपनी बिटिया को सुनाती हूँ ,
ऐसे कर्म करना , तुम्हारा हो नाम ,
तू मात्र कठपुतली नहीं , न ही है घर का सामान,
रिश्ते बनाना , निभाना पर ढोना नहीं ,
एक ही जीवन है मजबूरी में बिताना नहीं .............
इति
Tuesday, September 21, 2010
kuch teraa- kuch meraa
मन के उजियारे पन्ने पर , यादों की स्याही में डुबो ,
दिल की कलम से , नाम लिखा कई ब़ार ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
उगते सूरज की पहली किरण , ढलते चाँद की शीतलता ,
हर लम्हा हम हो साथ सनम , खिल जाये दिल का कोना - कोना ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
सोती - जगती इन आँखों ने कुछ ख्वाब बुने ,
पेड़ो की छांव तले , चरमराते पत्तों के बीच,चले थामे एक -दूजे का हाथ ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
तारों भरी रात , जुगनुओं की बारात ,
चटकती चांदनी में हो मिलन की बरसात ,संग हमारे हवा भी गुनगुनाये गीत ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
अनजानी - अन्चिह्नी राहों पर ,
यूँ ही बस चलते चले जाये ,हवा , पत्ते , बादल बस एक नाम पुकारे ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
दिल की कलम से , नाम लिखा कई ब़ार ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
उगते सूरज की पहली किरण , ढलते चाँद की शीतलता ,
हर लम्हा हम हो साथ सनम , खिल जाये दिल का कोना - कोना ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
सोती - जगती इन आँखों ने कुछ ख्वाब बुने ,
पेड़ो की छांव तले , चरमराते पत्तों के बीच,चले थामे एक -दूजे का हाथ ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
तारों भरी रात , जुगनुओं की बारात ,
चटकती चांदनी में हो मिलन की बरसात ,संग हमारे हवा भी गुनगुनाये गीत ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
अनजानी - अन्चिह्नी राहों पर ,
यूँ ही बस चलते चले जाये ,हवा , पत्ते , बादल बस एक नाम पुकारे ,
प्रिय कभी तेरा , कभी मेरा |
Monday, September 20, 2010
unchii dukaan Fikaa pakwan
एक था कल्लू , उसका था कोल्हू |
एक था भेरों, उसका था ठेला |
एक थी चंदा , उसका था भाड़ |
एक था राधे , उसका था पान भंडार |
ये सब बस नाम नहीं , पहचान थे |
अपने फन में माहिर , उस बाज़ार की शान थे |
टूट गया कोल्हू , छूट गया ठेला |
फूट गया भाड़ , गिर गया भंडार |
अब है यहाँ एक शानदार मॉल |
चमचमाता फर्श , जगमाती रोशनी |
टिमटिमाते बल्ब , नकली हँसी |
छुरी- कांटे , थेयेटर, कारों की कतार |
उंची दुकान, फीका पकवान ..........
एक था भेरों, उसका था ठेला |
एक थी चंदा , उसका था भाड़ |
एक था राधे , उसका था पान भंडार |
ये सब बस नाम नहीं , पहचान थे |
अपने फन में माहिर , उस बाज़ार की शान थे |
टूट गया कोल्हू , छूट गया ठेला |
फूट गया भाड़ , गिर गया भंडार |
अब है यहाँ एक शानदार मॉल |
चमचमाता फर्श , जगमाती रोशनी |
टिमटिमाते बल्ब , नकली हँसी |
छुरी- कांटे , थेयेटर, कारों की कतार |
उंची दुकान, फीका पकवान ..........
Tuesday, September 14, 2010
band khazanaa
सूखी वे पाँखुरियाँ,
आज भी ताज़ा हैं ,
पीले - मटमैले पन्नो में |
उलझी है लट,
आज भी माथे पे ,
छुई थी जो तूने बार -बार |
पलकों मे मोती ,
रखे हैं अभी तक ,
याद है उन लम्हों की |
दुपट्टे का कोना ,
अनछुआ , अनधुला है ,
फेरा था चहेरे पर जिसे |
चिंदी -चिंदी वह टिकेट ,
बटुए के कोने मे है दबा ,
साथ बिताये पलों की दास्तान |
ये सब बंद है ,
मन की सिलवटों में ,
जब - तब खोल जिसे झाँक आती हूँ ,
एक नया जीवन जी आती हूँ ............
इति ....
आज भी ताज़ा हैं ,
पीले - मटमैले पन्नो में |
उलझी है लट,
आज भी माथे पे ,
छुई थी जो तूने बार -बार |
पलकों मे मोती ,
रखे हैं अभी तक ,
याद है उन लम्हों की |
दुपट्टे का कोना ,
अनछुआ , अनधुला है ,
फेरा था चहेरे पर जिसे |
चिंदी -चिंदी वह टिकेट ,
बटुए के कोने मे है दबा ,
साथ बिताये पलों की दास्तान |
ये सब बंद है ,
मन की सिलवटों में ,
जब - तब खोल जिसे झाँक आती हूँ ,
एक नया जीवन जी आती हूँ ............
इति ....
Friday, September 10, 2010
purani yaad
बरसों बाद भाई आया ,
पुरानी यादें साथ लाया |
वह रूठना -मनाना , झगड़ा और शोर ,
तुझसे बंधी है बचपन की डोर |
कंचे, लट्टू , वो काटा की धूम ,
हरा समुंदर , मछली रानी गोल - गोल घूम |
ठेले की कुल्फी ,छल्ली और बुड्ढी के बाल,
हँसते - खेलते निकल गए कितने ही साल |
तेरे माथे पर मेरे नाख़ून के निशान,
तूने भी काटे थे सोते हुए मेरे बाल |
मैने बनाई तेरे पोस्टर पर मूँछ और पूँछ,
आज तक वह बात तू नहीं पाया है भूल |
ढूध के अनगिनत ग्लास बहाए थे हमने ,
रिपोर्ट कार्ड के कितने पन्ने छिपाए थे हमने |
अब भी याद है माँ के जाते ही रसोई में जाना ,
चाय बनाते - बनाते बर्तन का जलाना |
रात होते ही छत पर लपकना ,
पंखे के सामने ही चरपाई हडपना |
राज़ की बात एक - दूसरे को बताते थे ,
फिर उसी बात पर एक दूसरे को धमकाते थे |
पल मे दुश्मन , पल मे दोस्त थे हम ,
न कोई चिंता ,न फ़िक्र न थे गम |
कितने मधुर सुहाने थे वो दिन और रात ,
अब तो बस यह सब है पुरानी याद |..........
इति ..........
पुरानी यादें साथ लाया |
वह रूठना -मनाना , झगड़ा और शोर ,
तुझसे बंधी है बचपन की डोर |
कंचे, लट्टू , वो काटा की धूम ,
हरा समुंदर , मछली रानी गोल - गोल घूम |
ठेले की कुल्फी ,छल्ली और बुड्ढी के बाल,
हँसते - खेलते निकल गए कितने ही साल |
तेरे माथे पर मेरे नाख़ून के निशान,
तूने भी काटे थे सोते हुए मेरे बाल |
मैने बनाई तेरे पोस्टर पर मूँछ और पूँछ,
आज तक वह बात तू नहीं पाया है भूल |
ढूध के अनगिनत ग्लास बहाए थे हमने ,
रिपोर्ट कार्ड के कितने पन्ने छिपाए थे हमने |
अब भी याद है माँ के जाते ही रसोई में जाना ,
चाय बनाते - बनाते बर्तन का जलाना |
रात होते ही छत पर लपकना ,
पंखे के सामने ही चरपाई हडपना |
राज़ की बात एक - दूसरे को बताते थे ,
फिर उसी बात पर एक दूसरे को धमकाते थे |
पल मे दुश्मन , पल मे दोस्त थे हम ,
न कोई चिंता ,न फ़िक्र न थे गम |
कितने मधुर सुहाने थे वो दिन और रात ,
अब तो बस यह सब है पुरानी याद |..........
इति ..........
Tuesday, August 31, 2010
Ghar kaa Angan
जब मैं छोटी थी ,
मेरे घर का आंगन बहुत बड़ा था,
उसमें समाया था पूरा मोहल्ल्ला |
सामने घर में जलते तंदूर की खुशबू ,
हमारे आंगन तक आती थी |
वहाँ पकती सौंधी- सौंधी रोटी ,
हर किसी को बांटी जाती थी |
स्कूल से आते ही ,बस्ता पटक ,
गली में निकल जाते थे ,
कंचे ,गिल्ली -डंडा और वो काटा के शोर से ,
हर आने -जाने वाले को सताते थे |
हमारे आंगन की धूप , सबकी सांझी थी |
अचार , पापड, स्वेटर के फंदे ,
रिश्ते -नाते, हारी -बीमारी सब यहीं निबटते थे |
आधी रात को , चंदू की माँ की बीमारी सुन ,
अब्दुल भागा- भागा आया था ,
अपनी साईकल गिरवी रख ,वही दवा लाया था |
रधिया की शादी में पूरा मोहल्ला रोया था ,
पीटर की रतजगे मे कोई रात भर नहीं सोया था |
कुलवंत भाभी की रजाई के धागे माँ ही डाला करती थी ,
दादी के घुटनों की मालिश सब बारी से कर जाती थी|
एक ही टीवी सबको एक साथ हँसता - और रुलाता था
एक ही फ्रिज सबके काम आ जाता था ,
टेलीफोन की घंटी सुन ,चार घर दूर जाते थे ,
बातों के साथ , चाय भी पी आते थे |
अब मैं हो गयी हूँ बड़ी और सिमट गया है आंगन |
न है तंदूर और गली का शोर ,
हर घर का अपना है राग और अपना ही किस्सा,
अब नहीं बनता कोई किसी का हिस्सा ,
सब काम अब चुपचाप निबट जाते है ,
हम भी शादी की भीड़ मे शगुन दे आते हैं |
सिकुड़ गये है रिश्ते , बदल गयी है निगाहें ,
जलन , इर्ष्या और नफरत की खड़ी है दीवार ,
मेरे घर के आंगन मे अब धूप नहीं आती ,
दोपहर से पहले ही साँझ चली आती है |
अब मैं हो गयी हूँ बड़ी और सिमट गया है आंगन |
इति....
मेरे घर का आंगन बहुत बड़ा था,
उसमें समाया था पूरा मोहल्ल्ला |
सामने घर में जलते तंदूर की खुशबू ,
हमारे आंगन तक आती थी |
वहाँ पकती सौंधी- सौंधी रोटी ,
हर किसी को बांटी जाती थी |
स्कूल से आते ही ,बस्ता पटक ,
गली में निकल जाते थे ,
कंचे ,गिल्ली -डंडा और वो काटा के शोर से ,
हर आने -जाने वाले को सताते थे |
हमारे आंगन की धूप , सबकी सांझी थी |
अचार , पापड, स्वेटर के फंदे ,
रिश्ते -नाते, हारी -बीमारी सब यहीं निबटते थे |
आधी रात को , चंदू की माँ की बीमारी सुन ,
अब्दुल भागा- भागा आया था ,
अपनी साईकल गिरवी रख ,वही दवा लाया था |
रधिया की शादी में पूरा मोहल्ला रोया था ,
पीटर की रतजगे मे कोई रात भर नहीं सोया था |
कुलवंत भाभी की रजाई के धागे माँ ही डाला करती थी ,
दादी के घुटनों की मालिश सब बारी से कर जाती थी|
एक ही टीवी सबको एक साथ हँसता - और रुलाता था
एक ही फ्रिज सबके काम आ जाता था ,
टेलीफोन की घंटी सुन ,चार घर दूर जाते थे ,
बातों के साथ , चाय भी पी आते थे |
अब मैं हो गयी हूँ बड़ी और सिमट गया है आंगन |
न है तंदूर और गली का शोर ,
हर घर का अपना है राग और अपना ही किस्सा,
अब नहीं बनता कोई किसी का हिस्सा ,
सब काम अब चुपचाप निबट जाते है ,
हम भी शादी की भीड़ मे शगुन दे आते हैं |
सिकुड़ गये है रिश्ते , बदल गयी है निगाहें ,
जलन , इर्ष्या और नफरत की खड़ी है दीवार ,
मेरे घर के आंगन मे अब धूप नहीं आती ,
दोपहर से पहले ही साँझ चली आती है |
अब मैं हो गयी हूँ बड़ी और सिमट गया है आंगन |
इति....
Thursday, August 19, 2010
samarpan
होठों की हँसी,
आँखों की नमी ,
घुलमिल कर एक हुई |
तुम्हारे आने से ,
मेरे होने की पहचान परिपूर्ण हुई |
तुम में अपने को खो कर ,
आज मैं सम्पूर्ण हुई |
इति ...
आँखों की नमी ,
घुलमिल कर एक हुई |
तुम्हारे आने से ,
मेरे होने की पहचान परिपूर्ण हुई |
तुम में अपने को खो कर ,
आज मैं सम्पूर्ण हुई |
इति ...
Tuesday, August 17, 2010
Aek Vichaar
जीवित
है बस एक एहसास ,
मैं हूँ
सिर्फ एक आधार ......
बेटी ….पत्नी …..जननी
...या .......साधारण इंसान ?
अस्तिव की
पहचान .........
खोखलापन ….वेदना ….अहम् …
एक
विचार ..................?
Tuesday, August 10, 2010
RISHTAA
तेरा- मेरा रिश्ता है परे ,
झूठी परिभाषाओं से ...........
गुनगुनी धूप - सा ,
मद - मस्त - अलसाया |
नीले खुले अम्बर - सा ,
उन्मुक्त - विस्तृत - धुला -धुला |
बहती धारा - सा ,
निर्द्वंद - निश्छल - अल्हड़ |
कौंधती बिजली - सा ,
चपल - चंचल - रोशन |
बहती बयार - सा ,
शीतल - सुगन्धित - दुलारता |
तेरा - मेरा रिश्ता है परे ,
झूठी परिभाषाओं से .............
झूठी परिभाषाओं से ...........
गुनगुनी धूप - सा ,
मद - मस्त - अलसाया |
नीले खुले अम्बर - सा ,
उन्मुक्त - विस्तृत - धुला -धुला |
बहती धारा - सा ,
निर्द्वंद - निश्छल - अल्हड़ |
कौंधती बिजली - सा ,
चपल - चंचल - रोशन |
बहती बयार - सा ,
शीतल - सुगन्धित - दुलारता |
तेरा - मेरा रिश्ता है परे ,
झूठी परिभाषाओं से .............
Friday, July 23, 2010
दोस्ती
दोस्ती
वे सब रहे बरसों साथ - साथ ,
सपने थे अलग - अलग, फिर भी पास - पास |
चल पड़े सब अपनी - अपनी राह ,
किसने जाने क्या -क्या सहा |
कोई चला ,चलता ही गया ,
कोई उठा ,उठता ही गया |
कोई चला कहीं, पहुँचा कहीं,
कोई घूम फिर कर रहा वहीं का वहीं |
किसीको बदलनी पड़ी, अपनी राह ,
कोई चलते -चलते, भटक गया राह |
कुछ के फले, कुछ के बदले ,
अब क्या पूछना तुम कब ,कहाँ निकले |
आज भी एक सिरा है उन्हें है जोड़ रहा ,
यही काफी है , जो भी मिला हँस के मिला |
............
वे सब रहे बरसों साथ - साथ ,
सपने थे अलग - अलग, फिर भी पास - पास |
चल पड़े सब अपनी - अपनी राह ,
किसने जाने क्या -क्या सहा |
कोई चला ,चलता ही गया ,
कोई उठा ,उठता ही गया |
कोई चला कहीं, पहुँचा कहीं,
कोई घूम फिर कर रहा वहीं का वहीं |
किसीको बदलनी पड़ी, अपनी राह ,
कोई चलते -चलते, भटक गया राह |
कुछ के फले, कुछ के बदले ,
अब क्या पूछना तुम कब ,कहाँ निकले |
आज भी एक सिरा है उन्हें है जोड़ रहा ,
यही काफी है , जो भी मिला हँस के मिला |
............
Wednesday, July 21, 2010
yaad
याद है ...
चलते - चलते ...
हम दोनों ...
एक साथ ,
कितने मोड़ , मुड़ जाते थे,
बेमतलब , बेपरवाह ...
चलते - चले जाते थे ...|
मै आज भी उस मोड़ पर खड़ी हूँ ,
तुम प्रिय बहुत दूर निकल गए .............
चलते - चलते ...
हम दोनों ...
एक साथ ,
कितने मोड़ , मुड़ जाते थे,
बेमतलब , बेपरवाह ...
चलते - चले जाते थे ...|
मै आज भी उस मोड़ पर खड़ी हूँ ,
तुम प्रिय बहुत दूर निकल गए .............
Tuesday, July 13, 2010
beti ki pukaar
मत मार , मत मार , माँ मुझे मत मार ,
मैं तो हूँ तेरा ही प्राण ,
फिर तू कैसे हो गयी इतनी कठोर , निष्प्राण ?
तुझे मार कर , कर रही हूँ अपना और तेरा उद्धार ,
आज भी इस समाज में तेरा जीना है दुष्वार |
आज भी तेरे लिए है अग्नि परीक्षा ,
आज भी भरी सभा में है अपमान ,
किसी का कलंक तेरे लिए है श्राप |
पर जो यह सब नारे हैं -----
"बेटी कुदरत का उपहार है , न करो इसका तिरस्कार "
यह सब बेमानी हैं , अखबारों और पत्रिका में छापे जाते हैं ,
गावों- शहरों की दीवारों पर लिपे जाते हैं |
नेताओं के मुहं से बोले जाते हैं |
सच तो यह है ----
आज भी तू कोड़ियों के दाम बिकती है ,
दहेज की बलिदेवी पर चढ़ती है ,
रंग - रूप के आधार पर छनती है,
खुले आम बाज़ारों मे सजती है ,
बदले के लिए तू ही है सस्ता शिकार ,
इसलिए हर ब़ार तुझ पर ही होता है वार |
माँ हूँ तेरी , नहीं सह सकती यह अत्याचार ,
इसलिए आज तेरे उदगम स्थल पर ही ,
करती हूँ मैं तेरा बहिष्कार ||
इति ............
मैं तो हूँ तेरा ही प्राण ,
फिर तू कैसे हो गयी इतनी कठोर , निष्प्राण ?
तुझे मार कर , कर रही हूँ अपना और तेरा उद्धार ,
आज भी इस समाज में तेरा जीना है दुष्वार |
आज भी तेरे लिए है अग्नि परीक्षा ,
आज भी भरी सभा में है अपमान ,
किसी का कलंक तेरे लिए है श्राप |
पर जो यह सब नारे हैं -----
"बेटी कुदरत का उपहार है , न करो इसका तिरस्कार "
यह सब बेमानी हैं , अखबारों और पत्रिका में छापे जाते हैं ,
गावों- शहरों की दीवारों पर लिपे जाते हैं |
नेताओं के मुहं से बोले जाते हैं |
सच तो यह है ----
आज भी तू कोड़ियों के दाम बिकती है ,
दहेज की बलिदेवी पर चढ़ती है ,
रंग - रूप के आधार पर छनती है,
खुले आम बाज़ारों मे सजती है ,
बदले के लिए तू ही है सस्ता शिकार ,
इसलिए हर ब़ार तुझ पर ही होता है वार |
माँ हूँ तेरी , नहीं सह सकती यह अत्याचार ,
इसलिए आज तेरे उदगम स्थल पर ही ,
करती हूँ मैं तेरा बहिष्कार ||
इति ............
Wednesday, July 7, 2010
uchaai
वह ऊँचा पहाड़ , नंगा खड़ा था |
गर्व से उसका माथा चड़ा था |
न पेड़ , न पौधे , न ही घास थी वहाँ |
पहुँचे अनेक , पर रुके नहीं वहाँ |
सबसे अलग महान और एकाकी |
न चिड़िया - पंछी न हवा थी बाकी |
चेहेरे पर मुस्कान दिल मे दर्द छिपाए |
रंगों - संगो को वह है तरसता रहे |
यही है इतना ऊँचे होने की मज़बूरी |
जो बड़ा देती है अपनों से दूरी |
इसलिए मै अपने आमपन मे ही खुश हूँ |
भीड़ मे खोकर भी, अपने आप मे ख़ास हूँ |
इति ......
गर्व से उसका माथा चड़ा था |
न पेड़ , न पौधे , न ही घास थी वहाँ |
पहुँचे अनेक , पर रुके नहीं वहाँ |
सबसे अलग महान और एकाकी |
न चिड़िया - पंछी न हवा थी बाकी |
चेहेरे पर मुस्कान दिल मे दर्द छिपाए |
रंगों - संगो को वह है तरसता रहे |
यही है इतना ऊँचे होने की मज़बूरी |
जो बड़ा देती है अपनों से दूरी |
इसलिए मै अपने आमपन मे ही खुश हूँ |
भीड़ मे खोकर भी, अपने आप मे ख़ास हूँ |
इति ......
Monday, July 5, 2010
mujhe chaiye
मुझे चाहिये घर ,
बंद दीवारें नहीं |
मुझे चाहिये हंसी ,
गहनों की झंकार नहीं |
मुझे चाहिये समय ,
एक युग नहीं |
मुझे चाहिये खुला आकाश ,
पूरी कायनात नहीं |
मुझे चाहिये आँखों के जाम ,
पूरा मयखाना नहीं |
मुझे चाहिये एक साथी ,
रखवाला नहीं |
मुझे चाइए एक इन्सान ,
भगवान नहीं |
इति.............
बंद दीवारें नहीं |
मुझे चाहिये हंसी ,
गहनों की झंकार नहीं |
मुझे चाहिये समय ,
एक युग नहीं |
मुझे चाहिये खुला आकाश ,
पूरी कायनात नहीं |
मुझे चाहिये आँखों के जाम ,
पूरा मयखाना नहीं |
मुझे चाहिये एक साथी ,
रखवाला नहीं |
मुझे चाइए एक इन्सान ,
भगवान नहीं |
इति.............
Saturday, July 3, 2010
sapno ki duniyaa
वह छोटी सी चिड़िया ,
एकांत की तलाश में , दूर बहुत निकल गयी |
शीतल ताल ,
सुनहरा आकाश ,
ऊँचा पहाड़ ,
पाकर वही बस गयी |
आबादी का कोलाहल ,
रिश्ते का धूयाँ ,
यादों की मिट्टी,
को वह अब तरस गयी |
पलकों का गीलापन ,
होठों की हंसी ,
दिल की चाहत ,
सपनों की दुनिया बन गयी |
.........इति ...........
एकांत की तलाश में , दूर बहुत निकल गयी |
शीतल ताल ,
सुनहरा आकाश ,
ऊँचा पहाड़ ,
पाकर वही बस गयी |
आबादी का कोलाहल ,
रिश्ते का धूयाँ ,
यादों की मिट्टी,
को वह अब तरस गयी |
पलकों का गीलापन ,
होठों की हंसी ,
दिल की चाहत ,
सपनों की दुनिया बन गयी |
.........इति ...........
Sunday, June 27, 2010
aek cheraa
चाँद के चहेरे पर एक अक्स नज़र आता है ,
याद है जब एक साथ घंटो चाँद को निहारा करते थे ,
आज भी नज़र आती है तुम्हारी आंखे चाँद मे,
एक खामोश गर्माहट फैल जाती है चारो तरफ ,
उस गर्माहट की चादर लपेट ,
इंतजार करती हूँ अगली रात का |
इति .........
याद है जब एक साथ घंटो चाँद को निहारा करते थे ,
आज भी नज़र आती है तुम्हारी आंखे चाँद मे,
एक खामोश गर्माहट फैल जाती है चारो तरफ ,
उस गर्माहट की चादर लपेट ,
इंतजार करती हूँ अगली रात का |
इति .........
rishta
समपर्ण ..............
सम्पूर्ण समपर्ण ............
चाह कर भी नहीं हो पाता ,
विद्रोही मन मेरा ,
प्रशनों की दीवार पर अटक जाता है ,
रिश्तों का यह ताना - बाना,
जितना सुलझाती हूँ ,
उतना ही उलझता जाता है |
इति.........
सम्पूर्ण समपर्ण ............
चाह कर भी नहीं हो पाता ,
विद्रोही मन मेरा ,
प्रशनों की दीवार पर अटक जाता है ,
रिश्तों का यह ताना - बाना,
जितना सुलझाती हूँ ,
उतना ही उलझता जाता है |
इति.........
Friday, June 25, 2010
kyuoki
क्योकि वह याद था ,
साथ है |
क्योंकि वह गीत था,
आवाज़ है |
क्योंकि वह धड़कन था ,
अहसास है |
क्योंकि वह दीपक था ,
प्रकाश है |
क्योंकि वह साँस था ,
आस है |
क्योंकि वह हमारा था ,
पहचान है |
इति ..............
साथ है |
क्योंकि वह गीत था,
आवाज़ है |
क्योंकि वह धड़कन था ,
अहसास है |
क्योंकि वह दीपक था ,
प्रकाश है |
क्योंकि वह साँस था ,
आस है |
क्योंकि वह हमारा था ,
पहचान है |
इति ..............
Wednesday, June 23, 2010
Kyuoki
क्योकि वह बादल था ,
बरस गया |
क्योकि वह सपना था ,
टूट गया |
क्योकि वह तारा था ,
डूब गया |
क्योकि वह वक़्त था ,
बीत गया |
क्योकि वह आंसू था ,
छलक गया |
क्योकि वह हमारा था ,
छूट गया |
इति ...........
बरस गया |
क्योकि वह सपना था ,
टूट गया |
क्योकि वह तारा था ,
डूब गया |
क्योकि वह वक़्त था ,
बीत गया |
क्योकि वह आंसू था ,
छलक गया |
क्योकि वह हमारा था ,
छूट गया |
इति ...........
Monday, June 21, 2010
swym
स्वयं ने ,
स्वयं को,
स्वयं से कहा ,
स्वयं के लिए ,
स्वयं से कुछ करना चाहिए |
स्वयं की खातिर ,
स्वयं पर मरना चाहिए |
स्वयं कहता रहा .....हे , रे . अरे !!!!!!!!
स्वयं को,
स्वयं से कहा ,
स्वयं के लिए ,
स्वयं से कुछ करना चाहिए |
स्वयं की खातिर ,
स्वयं पर मरना चाहिए |
स्वयं कहता रहा .....हे , रे . अरे !!!!!!!!
Wednesday, June 16, 2010
ahsas
यह आधा - अधूरा सपना मेरा ,
अक्सर मुझे रातो को जगाता है |
तुम्हारे आस पास होने का भ्रम ,
मुझे चक्रव्यूह सा भरमाता है |
ब़ार - ब़ार छूती हूँ माथे की लकीरों को ,
जहाँ छुआ था तुमने ,
वह गर्म अहसास अभी भी मुझे ,
अग्निशिखा सा जलाता है |
इति ..............
अक्सर मुझे रातो को जगाता है |
तुम्हारे आस पास होने का भ्रम ,
मुझे चक्रव्यूह सा भरमाता है |
ब़ार - ब़ार छूती हूँ माथे की लकीरों को ,
जहाँ छुआ था तुमने ,
वह गर्म अहसास अभी भी मुझे ,
अग्निशिखा सा जलाता है |
इति ..............
Sunday, May 16, 2010
Maa
माँ
लोरी , थपकी
पल्लू , चवन्नी
दाल , छोंक
मलहम , पट्टी
डांट , फटकार
लुकाछिपी , खिखिलाहट
चाय की भाप ,
स्वेटर के फंदे ,
फ़ॉर्क की तुरपन ,
धमकी , नसीहत ,
समस्या का हल ,
दोस्त तो कभी जासूस ,
समय की घडी ,
अगरबत्ती की खुशबू,
गुड और चना ,
गाजर का हलवा
अचार की फांक
जादू की पिटारी
माँ..माँ...माँ..
लोरी , थपकी
पल्लू , चवन्नी
दाल , छोंक
मलहम , पट्टी
डांट , फटकार
लुकाछिपी , खिखिलाहट
चाय की भाप ,
स्वेटर के फंदे ,
फ़ॉर्क की तुरपन ,
धमकी , नसीहत ,
समस्या का हल ,
दोस्त तो कभी जासूस ,
समय की घडी ,
अगरबत्ती की खुशबू,
गुड और चना ,
गाजर का हलवा
अचार की फांक
जादू की पिटारी
माँ..माँ...माँ..
Friday, May 14, 2010
Band Khidki
काफी अरसे के बाद बंद खिड़की खुली ,
तन मन को हर्षित कर गयी .
यादो की पिटारी जो कब से सहेज रखी थी ,
परत दर परत खुल गयी .
घास ,फूल , धूप की महक ,
हर कोने को छू गयी ,
खिलखिलाना ,मनाना, रूठ जाना ,
सब यादे तरोताजा हो गयी .
बड़ा लम्बा सफ़र है यह ,
मुड़ कर देखा तो पाया .
एक उम्र पीछे छोड़ आये है हम .
इति
तन मन को हर्षित कर गयी .
यादो की पिटारी जो कब से सहेज रखी थी ,
परत दर परत खुल गयी .
घास ,फूल , धूप की महक ,
हर कोने को छू गयी ,
खिलखिलाना ,मनाना, रूठ जाना ,
सब यादे तरोताजा हो गयी .
बड़ा लम्बा सफ़र है यह ,
मुड़ कर देखा तो पाया .
एक उम्र पीछे छोड़ आये है हम .
इति
Sunday, May 9, 2010
dayra
कितने दायरे में बंधे है हम |
दायरे , जो खींचे है स्वय हमने,
अपने चारो ओर |
दायरा , टूटते ही ,
मच गया शोर ,
चारो ओर |
उठने लगी निगाहे ,
तीखी , बेधती सी |
ये उठती निगाहे ,
धकेल देती है ,
वापिस अपने दायरे की ओर |
दायरे, जो बनते जा रहे है ,
दलदल |
ओर हम धंसते जा रहे है ,
गहरे ,
छटपटआते ,
अवश |
..........................
दायरे , जो खींचे है स्वय हमने,
अपने चारो ओर |
दायरा , टूटते ही ,
मच गया शोर ,
चारो ओर |
उठने लगी निगाहे ,
तीखी , बेधती सी |
ये उठती निगाहे ,
धकेल देती है ,
वापिस अपने दायरे की ओर |
दायरे, जो बनते जा रहे है ,
दलदल |
ओर हम धंसते जा रहे है ,
गहरे ,
छटपटआते ,
अवश |
..........................
Friday, May 7, 2010
audhre sapne
एक टुकड़ा धूप,
थोड़ी सी छाँव.
ज्यादा तो नहीं चाहा,
पर पूरी न हुई .
जिन्दगी इसी का नाम है .
अधूरे ही सही कुछ सपने ,
पूरे तो हुए .
थोड़ी सी छाँव.
ज्यादा तो नहीं चाहा,
पर पूरी न हुई .
जिन्दगी इसी का नाम है .
अधूरे ही सही कुछ सपने ,
पूरे तो हुए .
Thursday, May 6, 2010
Sunday, March 7, 2010
slib
सलीब
हम सब टंगे है अपनी - अपनी सलीब पर
ईसा को तो , ठोका था औरो ने ,
हम मजबूर स्वयं को ठोकते है |
औरो ने ठोका तो आप महान ,
और हम खुद ही टंगे , तो मात्र मानव?
.......................
हम सब टंगे है अपनी - अपनी सलीब पर
ईसा को तो , ठोका था औरो ने ,
हम मजबूर स्वयं को ठोकते है |
औरो ने ठोका तो आप महान ,
और हम खुद ही टंगे , तो मात्र मानव?
.......................
Friday, February 19, 2010
kahi - ankahi
कही - अनकही
दूर ,फिर भी अन्तस्थ .
गहन , फिर सूक्ष्म .
संचित , फिर भी हीन.
अमूल्य , फिर भी नगण्य .
भरपूर फिर भी रिक्त .
Wednesday, February 3, 2010
अधुरा सम्वाद
तुम जो मेरे अपने हो
फिर यह रेखा बांट्ती सी
या बांटने के भ्रम सी
क्यों आती है मध्य हमारे
सुनो प्रिय , आवश्यक है,
रेखा का बीच मे आना ।
क्योंकि आवश्यक है,
अस्तित्व का बना रहना ।
अपनी अस्मिता , पह्चान ,
बहुत अधिक सार्थक है ।
अतः कभी भी नही निकल पाओगी ,
इस भ्रम से ॥
यही अस्मिता की सार्थक्अता ,
तो है रेखा बाटंती सी ॥
फिर यह रेखा बांट्ती सी
या बांटने के भ्रम सी
क्यों आती है मध्य हमारे
सुनो प्रिय , आवश्यक है,
रेखा का बीच मे आना ।
क्योंकि आवश्यक है,
अस्तित्व का बना रहना ।
अपनी अस्मिता , पह्चान ,
बहुत अधिक सार्थक है ।
अतः कभी भी नही निकल पाओगी ,
इस भ्रम से ॥
यही अस्मिता की सार्थक्अता ,
तो है रेखा बाटंती सी ॥
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